Sunday 25 March 2018

इस बसंत



इस बसंत
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इस बसंत
तेरी याद
नरम गरम धूप सी
कभी सरसों के फूलों की
पीली नरम आंच सी
कभी पलाश के फूलों की
लाल दहकती आग सी 
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Friday 23 March 2018

होना




होना 
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हक़ीक़त ना सही

स्वप्न बन रहो

सच ना सही

झूठ बन रहो

आस ना सही

निराशा बन रहो

फूल ना सही

शूल बन रहो

दोस्त ना सही

दुश्मन बन रहो

हर पक्ष का एक प्रतिपक्ष होता है

पक्ष ना सही
प्रतिपक्ष बन रहो
बस बने रहना
बने रहना ही
दुनिया की सबसे बड़ी नेमत

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क्या पूर्ण रूपेण निरपेक्ष भी कुछ होता है ?








Sunday 5 November 2017

जीना





                                                 जीना



कुछ चीजें बहुत कठिन होते हुए भी 
बेहद सरल होती हैं 
और 
सरल सी चीजें  उतनी ही कठिन 

जैसे समझना 

कि 
कुछ उन्मुक्त खिलखिलाहटें 
दिल के आसमा को 
उजास से भर जाती हैं 

जैसे 

स्निग्ध से कुछ शब्द
अभिव्यक्ति को 
नए अर्थों से भर देते हैं 

जैसे 

मदमाती देह गंध
मन में घुल कर 
मुलामियत का 
अहसास जगाती हैं 

जैसे 

कोई उजली सी आस
सपनों की दुनिया में 
खो जाने देती है 

जैसे 

स्नेह का मीठा सा स्पर्श
पूरे वज़ूद को ही 
स्पंदित कर जाता है 

गर ना हो ऐसा 

तो जीना भी क्या जीना है 
साँसों का आना जाना 
तो बस एक जैविक प्रक्रिया का 
होना है। 

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अक्सर आसान चीजें कठिन और कठिन चीजें आसान सी 
क्यूँ लगती हैं ?

Friday 20 October 2017

ताकि बने रहें ज़िंदगी में रंग




ताकि बने रहें ज़िंदगी में रंग 
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वे ख़्वाहिशें 

जो सबसे छोटी होती हैं 
होती हैं हमारी पहुँच के अंदर 
कि कर सकते हैं 
उन्हें सबसे सुगमता से पूर्ण 
उनका पूरा होना 
होता है सबसे भयावह। 


उन छोटी ख़्वाहिशों से 

जुडी होती हैं 
हमारी सबसे बड़ी ख़्वाहिशें 
कि छोटी ख्वाहिशों के पूरा होने पर 
अक्सर खिसक जाती है बड़ी ख़्वाहिशों की ज़मीन 
कि टूट कर बिखर बिखर जाती हैं किरचें 
लहूलुहान हो जाती है आत्मा।।


मेरी अब सबसे बड़ी ख़्वाहिश है 

कि सबसे छोटी ख़्वाहिश 
कभी ना बन सके हक़ीक़त
ताकि फलती फूलती रहे बड़ी ख़्वाहिशें 
बने रहें ज़िंदगी में रंग 
बनी रहे तरलता 
और बनी रहे गति।।। 




Thursday 14 September 2017

चश्मा




        भ्रम 
                आसमाँ की ओर 
           थोड़ा उठा सा मुँह 
           उसका 
           ऐसे लगता मानो 
           दो कान 
           और एक नाक 
           चश्मे का भार 
           नहीं सँभाल पा रहे हैं 

         हक़ीक़त

            दरअसल ये उसका चश्मा नहीं 
            उसकी आँखों में 
            छलक छलक जाते 
            अनगिनत सपने हैं  
            जिन्हें संभालने के फेर में 
            ऊंचा हो जाता हैं मुँह 
            और छूट जाती हैं जमीं  
            कि ठोकर खाती है बार बार
            सपने बचाने की एवज में । 
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तो क्या दिखने वाला हमेशा सच नहीं होता ?



Sunday 23 July 2017

इस बरसात





3. 
इस बरसात
तेरी याद
आँखों से बरसी बन
कतरा कतरा।

4.
इस बरसात
तेरी याद में 
इतनी बरसी आँखें
कि बेवफाई से लगे
जख्मोँ के समंदर भी
छोटे लगने लगे।  

5. 
ये सावन 
तेरी यादों का ही तो घर है 
यहां अक्सर वे बादलों की तरह घुमड़ती हैं 
और बिछोह की अकुलाहट की उष्मा से 
पिघल पिघल 
बूँद बूँद बरसती है।  

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Saturday 22 July 2017

ये दिल

ये दिल


अक्सर 
तुम्हारे 
अहसासों की मखमली दूब पर
विचरते हुए
आँखों से फैले उम्मीद के नूर में 
मासूम खिलखिलाहट से निसृत राग भूपाली 
सुनते हुए 
होठों से झर कर 
यहां वहां बिखरे शब्दों के 
रेशमी सेमल फाहों को 
चुनने में दिन यूँ 
लुट जाता है
कि अभी तो बस एक लम्हा गुज़रा 
और रात घिर आई 
कि दिल के आसमां पर  
तारों से टिमटिमाते सपनों की 
महफ़िल सज गयी है 
ये नादाँ दिल है 
कि डूब डूब जाता है 
बार बार
यादों के समंदर में । 
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ये हसीं रात हो के ना हो 

Thursday 13 July 2017

उम्मीद का चाँद


उम्मीद का चाँद
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जब जब मैंने चाहा  
कोई एक हो 
सावन बन बरस
भिगा दे तन मन
वो रूठा मानसून बन गया 
जब जब चाहा
कोई एक हो
बन धूप 
ठिठुरन से राहत दे 
वो शीत लहर बन गया
जब जब मैंने चाहा  
कोई एक हो 
छाया बन 
ताप से राहत दे 
वो लू सा चलने लगा 

पर हर नाउम्मीदी के चरम पर 
एक वो आता है 
कि बिन मौसम बरसात सा बरस 
मिटा देता अभाव के हर सूखेपन को 
कि सूरज बन टँक जाता मन के आकाश पर  
उष्मा सा फ़ैल
हर लेता निराशा की ठिठुरन 
कि समीर सा बहने लगता 
और सुखा जाता दुःख के हर स्वेद कण को 

वो जानता है 
कि नाउम्मीदी में उम्मीद का चाँद बन जाने से बेहतर
कहीं कुछ नहीं होता। 
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आ बैठे चल चर्च के पीछे 

Friday 9 June 2017

जब भी ये दिल उदास होता है







जब भी ये दिल उदास होता है 
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सुनो 
कभी मत होना उदास 
कि नहीं हूँ मैं 
तुम्हारे आस पास 


बस ज़रा खुद से बाहर आना 
देखना पत्तों पर ठहरी ओस की बूंदों को 
और महसूसना मेरे मन के गीलेपन को  
सुनना पक्षियों के कलरव को 
और महसूसना मेरे दिल की धड़कनों को 
थोड़ी देर ठहरना ऐसे ही 
लिपटना हवा के झोंकों से  
और महसूसना मेरी साँसों की कम्पन को 
थोड़ी सी मिट्टी हाथ में लेना 
घोलना अपनी आँख के पानी को 
और महसूसना मेरी देह गंध को 
थोड़ी देर बाहर ही रहना 
खुद को हवाले कर देना रिमझिम फुहारों के 
कि खुद ही महकने लगोगी मेरे प्रेम की कस्तूरी से 

और जान जाओगी 
मैं वहीं कहीं हूँ 
वहीं कहीं 
तुम्हारे पास ! 
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जब भी ये दिल उदास होता है 
जाने कौन आस पास होता है !








Saturday 20 May 2017

वो


वो 
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जिस पल देखा उसे 
एक कतरा मुझसे अलग हुआ  
कतरा बढ़ते बढ़ते 'वो' हुआ 
मैं घटते घटते 'कतरा' . 

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अपना ही अपना ना रहा 








Friday 19 May 2017

घरौंदा


घरौंदा 
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समय रुका हुआ
अठखेलियां कर रहा है 
धूप के शामियाने में 
छाँव चांदनी सी बिछी है 
ओस  है  कि दूब के श्रृंगार में मग्न  है  
गुलाब अधखिले से बहके है 
सूरज की किरणें पत्तों के बीच से 
झाँक रही हैं बच्चों की शैतानियों सी 
सरसराती सी हवा  है कि महका रही है फ़िज़ां 
मस्ती में झूम रही  है  डाल 
और पत्तों ने छेड़ी हुई है तान 
चिड़ियाँ कर रही  है  मंगल गान
तितलियाँ बिखेर रहीं  है रंग
कि शब्द 
तैर रहे हैं फुसफुसाते से 
कि कुछ सपने बस अभी अभी जन्मे है  
कभी बिलखते कभी खिलखिलाते 
किसी नवजात से 
हाथ पैर चला रहे हैं 
कि बस अभी दौड़ पड़ेंगे 

दरअसल यहां एक घरौंदा है 
और उसमें प्यार रहता है। 
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ये तेरा घर ये मेरा घर 
घर बहुत हसीं है. 




Friday 12 May 2017

बुद्ध हो जाना


बुद्ध हो जाना 


अक्सर
कुछ ख्वाब 
जो तुम्हारे भीतर
जगते हैं हक़ीक़त की तरह 

फिर वे

होठों से
आग आग दहकते हैं
पलाश की तरह
बसंत बसंत खिलते हैं
अमलतास की तरह
प्यार प्यार महकते हैं
गुलाब की तरह
शब्द शब्द झरते हैं
हरसिंगार की तरह

फिर कोई 

ओक ओक पीता है 
अमृत की तरह 
स्वर स्वर सुनता है 
संगीत की तरह
आग आग जलता है 
परवाने की तरह  

और 
फिर फिर निर्वाण पाता है 
बुद्ध की तरह। 
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तो जीवन की पराकाष्ठा  बुद्ध हो जाना है ?

Monday 8 May 2017

आओगे ना


आओगे ना


सुनो 
तुम जानते हो 
वो एक पल जो बचा के रखा था 
तुम्हें सौंप देने के लिए 

पता नहीं 
कब 
कैसे 
छिटक कर आ गिरा था 
दिल के किसी कोने में 
और फिर 
तुम्हारी यादों के मौसम में 
तुम्हारे सौंदर्य की खाद और 
अदाओं की वर्षा से 
अंकुरित हो गया गया एक पौधा 
प्रेम का
जो तुम्हारे स्नेह की धूप पाकर 
फ़ैल गया 
विशाल वट वृक्ष सा। 

सुनो 
जब भी ज़िंदगी के ताप से झुलसो  
और मन हो 
तो आना इस वृक्ष की सघन छाँव में 
रुको ना रुको 
कुछ पल ठहरना 
सुस्ताना  
और पूर्ण करना तुम एक अनंत प्रतीक्षा को  
तुम जानते हो 
वृक्ष  
अनजाने यात्रियों के बिना कितने अधूरे होते हैं 

आओगे ना। 
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क्या प्रतीक्षाएँ अपूर्ण होने के  लिए अभिशप्त होती हैं। 




Sunday 16 April 2017

प्रतीक्षा का रंग

 प्रतीक्षा का रंग
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सुनो जोगन
तुम विराग में भी ढूंढ रही हो राग 
और खड़ी हो चिर प्रतीक्षा  में 
कि विराग से कभी तो छलकेगा राग रस 

और उस पार जोगी देख रहा है 
उजले स्याह होते 
तुम्हारी प्रतीक्षा के रंग 
पढ़ रहा है उसका इतिहास 
जो अनंत काल तक जाता है पीछे 
जब पहली बार आदम और हव्वा के मन में जागी थी आदिम इच्छा 
देख रहा है उसका लगातार विस्तार पाता भूगोल 
क्षितिज पार फ़ैल रही है जिसकी सीमाएं 
माप रहा है आकार 
जो फ़ैल रहा है अंतरिक्ष में 

तुम्हें शायद पता नहीं  
प्रतीक्षाएँ चाहे जैसी हो 
स्याह होता जाता है उनका रंग 
पुराना होता जाता है इतिहास  
सीमाओं पार फ़ैलता जाता है भूगोल 
अनंत दूरियों को नापता हुआ 
जहां से लौट कर वापस नहीं आतीं अनुगूँजे भी 

प्रतीक्षा अक्सर दुःख की भाषा गढ़ती है 
और तुम चुन रही हो वही 
जो तुम्हें नहीं ही चुनना था। 

Friday 14 April 2017

मोको कहाँ ढूंढे रे


मोको कहाँ ढूंढे रे 
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'मैं इक परछाई हूँ 
या हूँ छलावा 
या हूँ कुछ भरम सा'
ये मानना ही भरम है तुम्हारा
तुम ढूंढ रही हो बाहर 
कुछ ठोस ठोस सा 
और मैं हूँ तुम्हारे भीतर 
तरल तरल सा 

जैसे होती है बारिश में आर्द्रता 
मैं हूँ तुम्हारे मन में गीलेपन सा 
जैसे होता है आग में ताप  
मैं हूँ तुम्हारे प्यार में उष्मा सा 
जैसे होती है चांदनी में शीतलता
मैं हूँ तुम्हारी आहों में ठिठुरन सा  
जैसे होते हैं किताबों में फलसफे 
मैं हूँ तुम्हारे ख्यालों में विचारों सा 
जैसे होता है माटी में उर्वरता 
मैं हूँ तुम्हारी साँसों में जीवन सा 

जैसे होती है मृग कुण्डिली में कस्तूरी 
मैं हूँ तुममें अहसास भरा भरा सा   
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ना मंदिर में ना मस्जिद में ना काबे कैलास में
मैं तो तेरे पास में बन्दे मैं तो तेरे पास में


Monday 3 April 2017

तुम्हारे लिए


तुम्हारे लिए 
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वे तुम्हारी बेवजह की बतकही
दिल के आँगन में जो पडी थी 
बेतरतीब सी
इस तनहा समय में उग आयी हैं
बेला चमेली के पेड़ों की तरह
जिनसे यादें झर रही हैं
फूलों सी 

तुम्हारी बेवजह बेसाख्ता फूट  पड़ती खिलखिलाहट
अब कानों में गूंजती है
बिस्मिल्लाह की शहनाई पर बजाई किसी धुन सी 

तुम्हारी यूँ ही निकली आहें
घुल रही हैं मेरी साँसों में
अमृत सी 

वो यूं ही बेसबब कनखियों से देखना
आ बैठा है हौले से पीठ पर 
जैसे किसी ने हल्दी लगे हाथो से
छाप दिए हों अपनी हथेलियों के निशां
किसी सगुन से 
और जोड़ दी हो अपनी किस्मत की रेखाएं मेरे साथ

कि कुछ भी बेवजह होना  
बेवजह नहीं होता
जैसे साँसों का आना जाना 
नहीं  होता बेवजह। 
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ज़िन्दगी में आने वाली हर चीज़ इतनी अर्थपूर्ण क्यूँ होती है। 













Wednesday 15 February 2017

स्थगित पल




उस दोपहर 
जब सारे ब्रह्मांड का नाद सौन्दर्य 
सिमट आया था तुम्हारी वाणी में 
तुम्हारे शब्द मेरे भीतर 
झर रहे थे बसंत की तरह 
तुम्हारी देहगंध टकरा के तन से मेरे 
फ़ैल गयी थी फ़िज़ा में 
तुम्हारी नेह दृष्टि 
समा गई थी मन के किसी कोने में
तुम्हारी मुस्कान तुम्हारे अधरों से होती हुई 
आ बैठी थी मेरे होटों पे 
ठीक उसी समय 
एक पल स्थगित कर दिया था मैंने 
सबसे बचा के  
कभी भविष्य के लिए 
गर मिले कभी तुम 
तो सौप दूँगी तुम्हे 

तुम आओगे ना प्रिये

फिलहाल तो मैं जी रही हूँ 
तुम्हारा वो स्थगित पल ! 

Wednesday 1 February 2017

लम्हा लम्हा


कुछ लम्हे दीदार
कुछ लम्हे ख्याल
कुछ लम्हे इन्तजार 
कुछ लम्हे इकरार
कुछ लम्हे बातें
कुछ लम्हे वादे
कुछ लम्हे खुशी
फिर
इन लम्हों का सिला
हर लम्हा बस
तेरी याद 
तेरी याद।

Tuesday 24 January 2017

स्वप्न


स्वप्न 
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सुनो
तुम
देखना एक दिन

उधेड़ दूंगा तुम्हारे दुखों की सिवन को
और  बिखेर दूंगा उन्हें कर चिंदी चिंदी सा 

कि तुम्हारे शरीर पर सजा दूंगा 
खुशियों को 
गहनों सा 
तुम्हारी आत्मा पर टांक दूंगा
अपने जज़्बातों को 
सितारों सा
भर दूंगा तुम्हे प्रेम से
कि तुम महका करोगी 
कस्तूरी सी 

कि बिछ जाएगा प्रेम हमारे दरम्यां
पर्वत पर बर्फ की चादर सा
या फ़ैल जाएगा वनों की हरियाली सा
कभी बहेगा नदी के नीर सा 
तो बरसेगा  सावन की घटाओं सा 
गर झरा तो 
झरेगा हरसिंगार के फूलों सा 
और दौड़ेगा धमनियों में लहू सा 

कि अपने अहसासात के हर्फ़ों से 
रच दूंगा एक प्रेम महाकाव्य 
जिसे पढ़ेंगे   
निर्जन वन प्रांतर में 
बिछा के धरती 
ओढ़ के आसमाँ  
जोगन जोगी सा 

कि उतर आएंगे किसी किताब के सफे पर 
बन के  
किसी किस्से कहानी के 
हिस्से सा।  
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ये किस्से कहानी क्या सच में सच होते होंगे !

Sunday 22 January 2017

इंतज़ार




इंतज़ार 
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कुछ सूखे सूखे से हैं पत्ते 
और झुकी झुकी सी डालियाँ

कुछ रूकी रुकी सी है हवा 
और बहके बहके से कदम 

कुछ मद्धम मद्धम सा है सूरज 
और सूना सूना सा दिन 

कुछ फीका फीका सा है चाँद 
और धुंधली धुंधली सी रात 

कुछ खाली खाली सी है शाम  
और खोया खोया सा दिल 

क्यों रोए रोए हैं ये सब 
क्या कहीं खोया है मेरा सनम  
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अक्सर ये इंतज़ार इतना मुश्किल क्यूँ होता है