Thursday 17 September 2015

कोई और घर ढूँढ़ते हैं



परजीवी
कुछ कीटाणु
कुछ विषाणु
कुछ वनस्पतियां
और एक खास प्रकार की आदमी की प्रजाति ही नहीं होते
सबसे बड़े परजीवी होते हैं हमारे दुःख


दुःख जब एक बार किसी से कर लेता है परिचय जाने अनजाने 
नहीं भूलता जल्द उस को 
पहले कभी कभी मिलना होता है दुःख का उस व्यक्ति से 
धीरे धीरे गाढ़ा होने लगता है परिचय 
फिर उसके अंदर ही बना लेता है पैठ 
तब मज़े से भीतर ही भीतर जीवन रस पीकर
दुःख अपने अंदर से ही पैदा कर देता है कुछ और दुखों  
कमी पड़ती है तो कुछ और दुखों को कर लेता है बहार से आमंत्रित 
सिलसिला तब तक अनवरत चलता रहता है 
जब तक वो व्यक्ति नहीं हो जाता मिट्टी 

तब दुःख बतियाते हैं 
उफ्फ ! कितना बेवफा निकला 
हमने जिसका अंत तक साथ नहीं छोड़ा 
उसने हमारी ज़फ़ा का ये सिला दिया 
चलो छोड़ो इसे 
कोई और ठिकाना ढूँढ़ते हैं 
और उसके आँगन में अपनी महफ़िल सजाते हैं। 

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