Saturday 20 May 2017

वो


वो 
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जिस पल देखा उसे 
एक कतरा मुझसे अलग हुआ  
कतरा बढ़ते बढ़ते 'वो' हुआ 
मैं घटते घटते 'कतरा' . 

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अपना ही अपना ना रहा 








Friday 19 May 2017

घरौंदा


घरौंदा 
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समय रुका हुआ
अठखेलियां कर रहा है 
धूप के शामियाने में 
छाँव चांदनी सी बिछी है 
ओस  है  कि दूब के श्रृंगार में मग्न  है  
गुलाब अधखिले से बहके है 
सूरज की किरणें पत्तों के बीच से 
झाँक रही हैं बच्चों की शैतानियों सी 
सरसराती सी हवा  है कि महका रही है फ़िज़ां 
मस्ती में झूम रही  है  डाल 
और पत्तों ने छेड़ी हुई है तान 
चिड़ियाँ कर रही  है  मंगल गान
तितलियाँ बिखेर रहीं  है रंग
कि शब्द 
तैर रहे हैं फुसफुसाते से 
कि कुछ सपने बस अभी अभी जन्मे है  
कभी बिलखते कभी खिलखिलाते 
किसी नवजात से 
हाथ पैर चला रहे हैं 
कि बस अभी दौड़ पड़ेंगे 

दरअसल यहां एक घरौंदा है 
और उसमें प्यार रहता है। 
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ये तेरा घर ये मेरा घर 
घर बहुत हसीं है. 




Friday 12 May 2017

बुद्ध हो जाना


बुद्ध हो जाना 


अक्सर
कुछ ख्वाब 
जो तुम्हारे भीतर
जगते हैं हक़ीक़त की तरह 

फिर वे

होठों से
आग आग दहकते हैं
पलाश की तरह
बसंत बसंत खिलते हैं
अमलतास की तरह
प्यार प्यार महकते हैं
गुलाब की तरह
शब्द शब्द झरते हैं
हरसिंगार की तरह

फिर कोई 

ओक ओक पीता है 
अमृत की तरह 
स्वर स्वर सुनता है 
संगीत की तरह
आग आग जलता है 
परवाने की तरह  

और 
फिर फिर निर्वाण पाता है 
बुद्ध की तरह। 
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तो जीवन की पराकाष्ठा  बुद्ध हो जाना है ?

Monday 8 May 2017

आओगे ना


आओगे ना


सुनो 
तुम जानते हो 
वो एक पल जो बचा के रखा था 
तुम्हें सौंप देने के लिए 

पता नहीं 
कब 
कैसे 
छिटक कर आ गिरा था 
दिल के किसी कोने में 
और फिर 
तुम्हारी यादों के मौसम में 
तुम्हारे सौंदर्य की खाद और 
अदाओं की वर्षा से 
अंकुरित हो गया गया एक पौधा 
प्रेम का
जो तुम्हारे स्नेह की धूप पाकर 
फ़ैल गया 
विशाल वट वृक्ष सा। 

सुनो 
जब भी ज़िंदगी के ताप से झुलसो  
और मन हो 
तो आना इस वृक्ष की सघन छाँव में 
रुको ना रुको 
कुछ पल ठहरना 
सुस्ताना  
और पूर्ण करना तुम एक अनंत प्रतीक्षा को  
तुम जानते हो 
वृक्ष  
अनजाने यात्रियों के बिना कितने अधूरे होते हैं 

आओगे ना। 
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क्या प्रतीक्षाएँ अपूर्ण होने के  लिए अभिशप्त होती हैं।