Saturday 31 December 2016

नया साल



नया साल 
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एक टुकड़ा सूरज अधूरी सुबह के लिए
एक हिस्सा रोशनी अधूरे दिन के लिए
एक कोना चाँद अधूरी रात के लिए
कुछ मुस्कुराहटें अधूरे क़ह्क़हों के लिए 
थोड़े से रंग अधूरी चाहतों के लिए 
थोड़ी सी उम्मीद अधूरे सपनों के लिए

पूरा मिले ना मिले 
बस इस थोड़े से बसर हो 
ज़िन्दगी मुकम्मल हो ना हो
मुकम्मल सी हो 
कि ज़िन्दगी अपनी हो ना हो
अपनी सी हो। 
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नए साल के इस मुबारक मौके पर कुछ हो ना हो 
कुछ आस हो, 
अपनों का साथ हो। 

Thursday 15 December 2016

लिखना 'प्रेम'








लिखना 'प्रेम'
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जब बहुत सारे लोग कर रहे थे प्रेम
सीखना चाहा था मैंने लिखना
लिखना 'प्रेम'

तमाम लोगो के प्रेम करते रहने के समय में

तुम अचानक से आई थीं एक दिन
भोर में फूल के पत्ते पर सिमटी ओस की बूँद की तरह
तब देखा था तुम्हें पहली बार
मन की ज़मीं पर टपका था एक बूँद प्रेम
जिसे बदल जाना था दरिया में
तब चाहा था लिखना प्रेम।

तुम  लगी थी मेरे प्रेम का आलंबन 

कुछ कुछ खड़ी पाई सी
और मैंने सीखा लिखना प्रेम के प की खड़ी पाई।

ये सीखना था बसंत के उल्लास सा

सब कुछ खिलने लगा था मन के क्षितिज तक
महकने लगा था अबूझ संसार
और मैं किसी डाल सा लचकने लगा था
तुम्हारे प्यार के फूलों को खुद पे सजाये हुए
और लचक कर झुक गया था तुम्हारी ओर
तुम्हारे स्वीकरण से मिल गया था मैं तुममें
सीख लिया था लिखना  प्रेम का 'प'।

तब बर्फ सी जमी तुम पिघलने लगी थी

मेरे प्रेम की उष्मा से
बहने लगी थी प्रेम की अजस्र धारा सी
मैंने सीख ली थी 'प्र' में लगाना र की मात्रा।

हमारे प्रेम के भार में

तुम झुकती गयी थी लगातार
इस कदर
कि तुमने खुद को बना लिया था हमारे प्रेम का आधार
कि तुम धंसने लगी थी ज़मीं में किसी पेड़ की जड़ सी
कि अपने को मिटा कर भी 
सींच रही थी प्रेम को
और मैं तुम्हारे प्रेम से फला फूला
तन गया था किसी पेड़ की सबसे ऊंची डाल सा
कि मैंने सीख ली थी प्रेम के प्रे में 'ए की मात्रा लगाना।

तुम प्रेम को प्रेम बनाए रखने के लिए

धंसती जा रही थी गहरे
और गहरे
और मैं प्रेम के आधे अधूरे प्रे को लिखना सीखने से गर्वोन्नत
तनता हुआ उठता जा रहा था ऊंचा
और ऊंचा
पर ये वो प्रेम तो नहीं था ना
कि हम जा रहे थे दो विपरीत ध्रुबों की ओर
तुम त्याग की मूर्ति
और मैं अहम् का पुतला बन।

आखिर कब तक तुम सींचती

अमर बेल से लिपटे हमारे प्रेम वृक्ष को
कि मेरे अमरबेल बन जाने से तय हो गयी
नियति हमारे प्रेम की
कि सूखना ही था प्रेम वृक्ष
और प्रेम वृक्ष के सूखते हुए देख 
लगा था हम दोनों को ही 
कि सूखने से बचाना है इसे 
तो दोनों को ही मुड़ना होगा विपरीत दिशा में 
कि तुम्हें कुछ सींचना होगा अपने स्व को 
और मुझे सुखाना होगा अपने अहम् को 
इसे सीखने में जो वक्त लगना था 
ये वही था जो लगता है 
'प्रे' से 'म' तक आने में।

तुम्हारे स्व के जगने 

और मेरे अहम् के मरने से 
हम एक बार फिर खड़े हो गए थे दो समानांतर पाई से 
कि समय की धूप छाँव ने सिखाया था 
प्रेम 
द्वैत के अद्वैत में बदल जाने में है 
आत्मा के परमात्मा में विलीन हो जाने में है  
मेरा तुम में समा जाने में है
और इस तरह 
समय की भट्टी में 
तुम्हारे प्रेम के ईंधन से जली आग के ताप से 
कपूर सा उड़ गया था मेरे भीतर का अहम् 
कि मैं पूरी तरह मुड़ के समा गया था तुम में 
और मैंने सीख लिया था लिखना प्रेम के 'म' को ।

हाँ अब ये सच था 

कि एक ऐसे समय में 
जब सब कर रहे थे प्रेम 
मैंने सीखा लिया था लिखना 'प्रेम'।  
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प्रेम करने वाले समय में प्रेम लिखना इतना खूबसूरत क्यूं होता है।  





Saturday 10 December 2016

इस सर्द मौसम


इस सर्द मौसम 

मिरा यार 
इस सर्द मौसम 
मेहताब नहीं 
आफ़्ताब सा लगता है 
शरारतन खुद को छुपा लिया है 
दीवार ओ धुंध के पीछे 
और हम हैं कि 
इक झलक उसकी पाने को 
इकटक सरे आसमाँ देखा करते हैं 
कि ख़ुदा के आगे हाथ उठते हैं 
उसके इश्क़ की रोशनी के लिए। 
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कि सर्द मौसम तेरी याद इतनी बेदर्द क्यूँ हो जाती है।  









यादें

                                                            (गूगल से साभार )

यादें 
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याद 
कि 
इक बीता लम्हा 
लम्हों की बारातें 
लम्हों में बीती बातें 
बातों की यादें। 

याद 
कि 
इक टपका आंसू 
आंसुओं की लड़ियाँ 
लड़ियों में ग़म के किस्से 
किस्सों की यादें। 

याद 
कि 
इक अटकी फांस
फांसों के फ़साने  
फसानों की टीसें 
टीसों की यादें। 

याद 
कि 
इक टूटा ख्वाब 
ख्वाबों की रातें
रातों की तन्हाइयां 
तन्हाइयों की यादें 
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ये यादें इतनी संगदिल क्यों होती हैं ?

चीजें अक्सर ऐसे ही बदल जाया करती हैं !

                                                      (गूगल से साभार)

चीजें अक्सर ऐसे ही बदल जाया करती हैं !
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कुछ फासले 
दूरियां नहीं होती 
प्रेम होती हैं 

कुछ बातें 

बतकही नहीं होती 
प्रेम होती है

कुछ दोस्ती 

रिश्ते नहीं होतीं 
प्रेम होती हैं 

कुछ लड़ाईयां 

अदावतें नहीं होती 
प्रेम होती हैं 

प्रेम में चीजें

अक्सर
ऐसे ही बदल जाया करती हैं !  
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चीजें वैसी क्यों नहीं होती जैसी दिखाई देती हैं  

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी 
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ज़िन्दगी 
सर्दियों के किसी इतवार की अलसुबह सी 
अलसाई अलसाई
बिस्तर में ही गुज़र बसर हो जाती है
ना आगे खुद बढती है
ना बढ़ाने की इच्छा होती है।
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अपने अपने युद्ध


ऐन उस वक्त 
जब एक युद्ध हो रहा होता है सीमा पर 
कई युद्ध कर रहे होते हैं लोग घरों में  
सीमा पे लड़े जा रहे युद्ध से अधिक विध्वंसक  
वे लड़ रहे होते हैं अपने अपने भय से। 

एक युद्ध कर रहे होते हैं माँ बाप

अपनी लाठी के हाथ से छूट जाने के भय से और 
जीवन की साँझ की उम्मीद 
दो मज़बूत कंधों के टूट जाने के भय से। 
पत्नी लड़ रही होती है
पहाड़ सी ज़िन्दगी से लड़ने वाले साथी का हाथ छूट जाने के भय से 
बहन लड़ रही होती है एक कलाई के खो जाने के भय से 
एक बेटी लड़ रही होती है
अपने सबसे बड़े हीरो की उंगली छूट जाने के भय से  
और वे सब एक साथ लड़ रहे होते हैं 
पेट की आग बुझाने के लिए होने वाली चिंता के भय से 

सुनो 

अब जब भी बात करो तुम युद्ध की 
एक बार उन युद्धों की सोचना 
जो किए जा रहे हैं अपने अपने सपनों के मरने के भय से 
और फिर कवि की  उक्ति याद करना कि
 'सबसे खतरनाक  होता है सपनों का मर जाना'
उसके बाद भी हिम्मत बचे 
तो बात करना युद्ध की।  
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क्या युद्ध इतने ज़रूरी होते हैं ?

पुल


पुल
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दी का पुल
उसके दो किनारों को जोड़ता है
ये भ्रम मात्र है।
पुल कुछ लोगों की ज़रूरतों की
पूर्ति का साधन भर है
और किनारों की निरंतरता को बाधित करने का साधन भी।
उनकी इच्छा तो
नदी के प्रेम में
उसके सहयात्री बने रहने में है
और उसके सागर में
विलीन होने के बाद
खुद को मिटा देने में भी।
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किनारों का मिलना ज़रूरी तो नहीं है।

1


ये कैसा तूफान है ज़िन्दगी में इस बार
ना हलचल है कोई ना शोर
आहें हैं सिसकियाँ हैं
बस यही निशां हैं बर्बादी के चारों ओर।
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फुटकल_2


गागर जितने मन में 
सागर के पानी जितनी हसरतें 
फिर भी मन कितना 
रीता रीता 
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Sunday 5 June 2016

बाहरी आवरण



हर किसी के बाहरी आवरण में

छिपा हुआ है और भी बहुत कुछ
अक्सर सुनहरी धूप जिस्म को कर देती है काला
और साँवली छाया कर देती है चमड़ी को और अधिक उजला
जैसे कुछ बड़े आदमी साबित होते हैं बहुत बौने
और छोटे आदमी उठा लेते हैं अपने को आसमान से भी ऊँचा।
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Tuesday 24 May 2016

तमन्नाएँ



ये आसमान पर बिखरे तारे हैं

कि हमारी तमन्नाएँ
दिखते तो खूबसूरत हैं
पर हाथ नहीं आते।
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Friday 1 April 2016

प्रेम



ताजमहल को देख समझ आता है 
कितना मुश्किल है एक शब्द को 
आकार दे पाना 
लैला मजनू ,हीर रांझा ,शीरी फरहाद के किस्से पढ़ समझ आता है 
कितना मुश्किल है एक शब्द को 
निभा पाना 
पद्मावती के जौहर को जान समझ आता है 
कितना मुश्किल है एक शब्द से 
गीलेपन को सोख पाना 
खाप पंचायतों के फतवों को सुन समझ आता है
कितना मुश्किल है एक शब्द को 
जी पाना  
फिर भी ज़ुर्रत होती है 
एक शब्द को गले लगा पाने की 
आओ 
मैं और तुम भी करें वही ज़ुर्रत 
हम भी एक शब्द को दें 
आकार 
विस्तार 
छुअन 
कुछ रंग
जीवन  
और लिख दें ज़िंदगी पर एक शब्द 
प्रेम। 
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(गूगल से साभार)

Monday 28 March 2016

इंतज़ार



तेरे इंतज़ार के सफर में 
यादें मील का पत्थर बनती गयीं 
ना सफर मुकम्मल हुआ 
ना यादों का सिलसिला रूका। 

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ये सफर कभी ख़त्म ही नहीं होता।

Wednesday 27 January 2016

इस सर्द


इस सर्द मौसम
तेरी याद की
भीनी भीनी खुशबू
घुल रही है सांसों में
नरम नरम धूप के
अहसास सी

समय की धार से

मन के उस पार
संघनित होती जाती
धुंध सी उदासी
आहिस्ता आहिस्ता
उड़ती जाती
भाप सी।
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यादों का मौसम से कोई रिश्ता तो नहीं

(गूगल से साभार) 

 







 
 उस जगह
जहाँ हमने कभी
गुनगुनाया था प्रेम
और
बोए थे कुछ सपने
एक ज़िंदगी उगाने को

अब वो जगह

पड़ी हैं वीरान वीरा
कुछ उदास उदास
बह रहा है
एक शोर धीमा धीमा
 सूखे पत्तों का
 मोजार्ट और बीथोहोवेन की उदास धुनों सा
 और मैं सुन हूँ बहका बहका सा।
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नितांत खालीपन वाले इस समय में