Tuesday 23 December 2014

एहसास


तेरी सांसें
सर्द रातों में
शोला बन
देह में कुछ पिघलाती रहीं

तेरी छुअन

तपती दोपहर में भी
बर्फ़ की मानिंद
मन में कुछ जमाती रही

ज़िंदगी बस यूँ ही

पिघलते और जमते
रफ्ता रफ्ता गुज़रती गई। 



Sunday 19 October 2014

पत्थर



तुम  वैसे बिल्कुल नहीं हो 

जैसे कहे 
और समझे जाते हो। 

मैं जानता हूँ 

जब तुम प्रेम में पगते हो 
तो ताजमहल बन जाते हो  
करुणा में भीगते हो 
तो दरिया बन बह निकलते हो  
दुःख से गलते हो 
तो शिवाला बन बैठते हो 
मिटने पर आते हो 
तो रेत बन जाते हो
चक्की का पाट बन 
पेट थपथपाते हो
सिल बट्टा बन 
नथुने महकाते  हो
ख़ुद की रगड़ से घायल होकर भी
दुनिया को रोशन करते हो 
अपने सीने पर 
खुदवाते हो राजाज्ञाएं 
और फिर सदियों तक ढ़ोते हो 

ये सब अच्छा है 

बस एक खराबी है  तुम्हारी 
कि तुम खौलना और धधकना भी  जानते हो 
और अक्सर मज़लूमों के हाथ के 
हथियार बन जाते  हो 
तुम्हारा यूँ धधकना इन्हें पसंद नहीं 
कि तुम्हारे ताप से पिघलने का 
ख़तरा  है उनकी  काँच की दीवारों को  
कि दीवारों के पीछे के उनके अंधेरों पर 
हावी हो सकती है
तुम्हारे ताप की रोशनी 
दरक सकती है उनकी सत्ता।  

इसीलिए तुम हो 

बेकार 
जड़ 
और कठोर भी
आज तक।  


Monday 8 September 2014

इलाहाबाद ज्ञानरंजन की नज़र में

         

        सुप्रसिद्ध कथाकार ज्ञानरंजन कल इलाहाबाद में थे। मीरा स्मृति सम्मान के सिलसिले में। मैं उन्हें एक बड़े कथाकार के रूप में जानता हूँ और उससे भी अधिक पहल के संपादक के रूप में। इलाहाबाद में रहते हुए ज्ञानरंजन,रविन्द्र कालिया और दूधनाथ की त्रयी के बारे में काफी कुछ सुना था।कल उनसे मिलने और उन्हें सुनने का मौका मिला। सम्मान समारोह में उन्होंने एक छोटा सा वक्तव्य दिया। दरअसल वे इलाहाबाद के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर रहे थे। वे उस शहर को ढूंढने का प्रयास कर रहे थे जिसमें उनका जन्म हुआ और पले बढ़े और जिसे वे वर्षों पहले छोड़ गए थे। जिसका उन पर बड़ा दाय है और जिसे वे शिद्दत से महसूस भी करते हैं। उन्होंने शहर को और शहर ने उन्हें भरपूर जिया। तभी तो इतने वर्षों से इलाहाबाद की स्मृतियाँ उनके मन में इस तरह जड़ थी मानो वो लंबा अंतराल कल की बात हो। वे अपने जिए उस इलाहाबाद के शानदार और सजीव चित्र बनाते हैं जो उनकी स्मृति पटल पर स्थायी रूप से अंकित हो चुका है और जो भगवती चरण वर्मा,दूधनाथ सिंह,नासिरा शर्मा,धर्मवीर भारती में बार बार आता है। पर वो शहर अब उन्हें ढूंढे से भी नहीं मिलता। तभी वे उसकी दुखी मन से उसकी मृत्यु की घोषणा करते है। पर शहर मन में इतने गहरा पैठा है, वे इस शिद्दत से उसे चाहते हैं कि उसकी मृत्यु में भी खूबसूरती ढूंढ लेते हैं। वे मानते हैं कि अपनी मृत्यु के बाद भी ये शहर तक्षशिला,नालंदा या एथेंस जैसा ही खूबसूरत लगेगा। उनके वक्तव्य के कुछ संपादित अंश .……

                                   "जिस  इलाहाबाद में मैंने अपने को आवारागर्द के रूप में पाया,जिस इलाहाबाद में एक संभ्रांत परिवार में जन्म लेकर भी मैं अभिजात्यों के खिलाफ चला गया और अपनी हर भाषाओं से इसकी निरंतर मुख़ालफ़त की। यहाँ तक की कहानियों के उन पात्रों की भी जो इलाहाबाद की उपज थे और जो उपज अब पूरे मुल्क में फ़ैल गयी है  ………   इलाहाबाद ने मुझे शरण दी है,स्वीकार किया है और अब सम्मान भी किया है तो अब अधिक बद्तमीजी नहीं करूँगा।  इलाहाबाद का तो जलवा था कि मुझे नौकरी भी बिना साक्षात्कार के मिली।उन दिनों लोग जबलपुर में मुझसे सम्मानजनक दूरी रखते थे कि मैं इलाहाबाद का हूँ,इलाहाबाद से आया हूं।  नई नौकरी के बावज़ूद मैं  हरीशंकर परसाई के साथ अनाप शनाप छुट्टियां लेता हुआ,जब मुक्तिबोध कैंसर से जूझ रहे थे तो राजनांदगांव,भोपाल,दिल्ली के अस्पतालों के चक्कर लगाता रहा और वहां मेरी मुलाकातें शमशेर,नेमिचन्द्र जैन, श्रीकांत वर्मा से बार बार हुईं। ना जाने कितनी महापुरुषों की छायाएं इसी इलाहाबाद में मेरे ऊपर गिरी उसे बताना कठिन है। इसलिए इलाहाबाद के असंख्य आभार हैं। साथियों विश्वास करें जब इलाहाबाद की बात आती है तो मेरा सोना-जागना स्थगित हो जाता है। मेरे अंदर एक युवक उभरता है।  भीतर रासायनिक बेकरारी होने लगती है। पुराना उत्साह उत्पात तोड़ फोड़  मचने लगती है।  इसलिए मैं वाचाल होने के लिए क्षमा चाहता हूँ। .......
             जीते जी मैंने कम से कम दो इलाहाबाद देखे। मैं पुराने का ध्वंसावशेष हूँ   और मलबे का अंकुर भी।
  पुरानी जगहों को खोज रहा हूँ पर उनका कायाकल्प हो गया है। मैं जानना चाहता कि एक शहर कब और कैसे   मरता और कैसे जीता है। मेरे कोई भी पात्र आउटसाइडर नहीं हैं। सभी इस भूगोल के हैं। मेरा लोकेल भी इलाहाबाद है। और इन पात्रों से मेरी वैचारिक लड़ाई आज भी जारी है। आप सब को अपनी कुछ नकारमक बातें बतलाता हूँ।एक तो ये कि इलाहाबाद का आदमी सदा क्षम्य है।  दूसरा यह  इलाहाबाद का आसमान ज़मीन सब अलग है। और अंतिम यह कि हम सब ने इलाहाबाद का दूध पिया है। बहरहाल मैंने इस शहर में महान अध्यापक प्राप्त किए,ऐसे  नए पुराने लेखक कलाकार संपादक जिन्हें मैंने तारामंडल कहा। ऐसे दूधनाथ,कालिया, लक्ष्मीधर, प्रभात,ओमप्रकाश, रज्जू और नीलाभ जैसे मित्र जिनके उजाले अंधेरों में मेरा जुगनू दमकता रहा। यहीं कौशल्या जी ममताजी और सुलक्षणा ने असंख्य बार खाना  खिलाया।मेरे मित्र झूंसी ,तेलियरगंज ,धूमनगंज  और दिल्ली में फेंक दिए गए। हर शहर में ये होता रहा है और हो रहा है। शानी ने दिल्ली पर लिखा 'सारे दुखिया जमुना पार'। मैं कहूँगा  गंगा पार,जमुना पार और बचे खुचे चौफटका पार। …… तो मेरे गुरु, मेरे दोस्त, मेरे पात्र, मेरे साथी, मेरे लेखक, मेरे अड्डे,  मेरे फुटपाथ, यहां तक कि मेरी प्रेमिका और फिर मेरी पत्नी सभी इसी शहर के पात्र हैं। मैं उन्हें नागरिक नहीं पात्र कहता हूँ क्योंकि उन्हीं से मेरी रचना पैदा हुई है। जिस सभागार में हम उपस्थित हैं उससे कुछ दूरी पर पोनप्पा रोड़ है। जहाँ हुड्ड हो जाने के बाद मैंने सायकिल सीखी और इनाम में सौ रुपए पाए क्योंकि मेरे लोग यह उम्मीद छोड़ चुके थे। साउथ रोड की मरीन ड्राइव की तरह लहराती कटावदार बत्तियां दूधनाथ की कहानी में हैं ,ज़ीरो रोड को नासिरा शर्मा ने आबाद किया और भगवती बाबू के उपन्यास में रास्ते राहत जगाती  यूनिवर्सिटी रोड बार बार आता है और वो शानदार गोल केथेड्रल जिसने धर्मवीर भारती को प्रेरित किया और वे अंधायुग तक गए। इसी इलाके में महादेवी  सबसे पास थीं पर वे सदा सबसे दूर रहीं। यहाँ से अमृत राय भी पास थे और श्रीपत राय  सानु सन्यासी ड्रूमंड रोड पर। बहुत बाद में इसी इलाके में अमरकांत भी आए ,मार्कण्डेय ,ओंकार शरद राजापुर  सिमेट्री के पास बसे  थे। आकाशवाणी के दो जुड़वां  बंगले भी इस सभागार के पास हैं  जहाँ एक समय गिरिजा कुमार माथुर कभी कभार एक टाँगे पर दारागंज तक जाते थे। तांगा रस्तोगी जी का था। उनके साथ इस आवारा को दो चार बार संगत करने का अवसर मिला। यहीं भारत भूषण अग्रवाल और प्रभाकर माचवे भी थे जिन्होंने मुझे तीन सप्ताह के तीन अनुबंध दिए थे जिसकी मज़दूरी  उन दिनों कुल पंद्रह रुपये थी। यहीं स्टूडियो में मैंने उस्ताद अलाउद्दीनखां के सरोद को खिलखिलाते और सरोद पर उस्ताद को आंसू टपकाते भी देखा था। यहीं मैंने पहली बार  प्रभात के साथ मुक्तिबोध की गौरांगउटान कविता का पाठ भी सुना। उन दिनों इलाहाबाद का ये इलाका दबंग, अभिजात्य अंग्रेजी शिल्प और सुनसान से भरा ऐसा इलाका था जहाँ कोई बूढ़ी औरत सीताफल नहीं बेच सकती थी। और मूंगफली के ठेले भी इधर नहीं घुसते थे। यह थी पच्छिम की थॉर्नहिल रोड।
          नगरों की एक आयु होती है, वे कितने ही गर्वीले और शरीफ क्यों न हों। ध्यानस्थ हो सौ वर्ष पहले और सौ वर्ष बाद के इलाहाबाद के दृश्य देखे जा सकते हैं। क्योंकि हमारे देश में विकास का जो दर्शन उभरा है और जिस पर एक सीमा तक सहमति भी हो गयी है उसी में ध्वंस, डूब और विनाश निहित हो गया है।जो नगर जल प्लावन, युद्ध, भूकम्प, आवागमन, निष्क्रमण तथा प्रजनन और विकास के अनन्य बहानों की वजह से जमींदोज़ हुए उनमें   सात आठ सौ सालों में गणना सौ के पार हो जाएगी। इनमें जीवित मरे हुए भी शामिल हैं। हमारे देखते देखते विकास ने टिहरी और हरसूद को निगल लिया।  अभी पचास सालों में और नगर तबाह  होने की प्रतीक्षा में हैं। ये शहर नहीं सभ्यताएं थीं। मैं इलाहाबाद के घमंड को टूटते हुए देख रहा हूँ। इसके गर्वीले चिन्ह और लैंडमार्क मिट रहे हैं। लेकिन सुन्दर और मरी हुई चीज़ें भी  शानदार हो सकती हैं। नालंदा, तक्षशिला, मोहनजोदड़ों,कौशाम्बी, एथेंस  की याद कर लें। सूची और भी है। इलाहाबाद वयोवृद्ध है या उन्मत्त   या हत्यारों द्वारा मारा जाएगा या क्या पता नदियां इसे घेर लेंगी। मेरी यह समझ है इलाहाबाद पर हमला हो चुका है। ये हमले पुणे, हैदराबाद, बेंगलुरु, लखनऊ,  दिल्ली और अहमदाबाद पर भी हो चुके हैं।  एक अदृश्य दीवार खड़ी हो गयी है जो नए पुराने शहरों के बीच है। हमारे जैसे लोग नए पुराने किसी भी हिस्से में चैन से नहीं रह सकते। इस आर्थिक और सांस्कृतिक बलवे का अंजाम कहाँ तक जाएगा यह सब जानना पहचानना हमारे लिए दिलचस्प है। सवाल मरने जीने का नहीं है। सवाल इसके आगे का है। शहर में सामग्रियाँ,तरल मुद्रा,चमक दमक,भुलक्कड़ी,जन संकुलता किसी की भी कोई कमी नहीं है।फिर भी सवाल खतरनाक होते जा रहे हैं।  इस सम्मान कार्यक्रम में मैं संकेत देना चाहता हूँ कि इलाहाबाद पर एक किताब चल रही है। यह वक्तव्य केवल कृतज्ञता मात्र है। इलाहाबाद  के कारण मुझे आज भी बोनस मिल रहा है।" 





हवा बदल गई है



हवा बदल गई है 
अब हवाएँ ज़हरीली हो गई हैं 
धुआं हवाओं को धमकाता है 
फ़िज़ाओं में ज़हर मत घोलों 
हवाएँ स्तब्ध हैं 
निस्पंद हैं 
जिससे एक निर्वात पैदा हो गया है 
और उसमें सब ऊपर नीचे हो रहे हैं 
बिना पेंदी के।  




Monday 25 August 2014

भस्मासुर




वो जो सबसे शक्तिशाली है
मन के किसी कोने में सबसे बुझदिल है
उसे सताता है डर 
हर पल
अपने जैसे ही किसी दूसरे के अपने मुक़ाबिल खड़े होने का
डरता है हर किसी से
ना जाने कौन सा निहत्था उसे कर दे निरुत्तर
ना जाने कौन सा बच्चा खड़ा हो जाए उसके ख़िलाफ़ लेकर हथियार
ना जाने कौन सा किसान छीन ले  उसकी मुँह का निवाला
ना जाने कौन सा नागरिक छीन ले उसकी आज़ादी
ना जाने कौन सा शासक छीन ले उसकी सत्ता
गिराता है परमाणु बम
चलाता है  ड्रोन से मिसाइलें
जलाता है तेल के कुँए
रोकना चाहता है आत्महत्या करते किसानों की सब्सिडी
करता है हवाई हमले  मातृभूमि की मांग करते बच्चों और औरतों पर
बंद कर देना चाहता है अभिव्यक्ति  के सारे साधन
चाहता है हर किसी को रौंदना
चाहता है कुचलना
कर देना चाहता है नेस्तनाबूद
मिटा देना चाहता है अस्तित्व
पर वो नहीं जानता 
भस्मासुर भी नहीं बचा था 
एक दिन 
अपनी शक्ति के मद में चूर
वो भी उसी की तरह नाचेगा
अपने सर हाथ रखकर 
और खुद ही भस्म हो जाएगा।





Friday 6 June 2014

क्षणिका



ज़िन्दगी में कुछ लम्हें ऐसे आते हैं
जो गुज़र कर भी
गुज़रते नहीं
बल्कि जिन्दगी के साथ
हमेशा के चस्पाँ हो जाते हैं !





Wednesday 4 June 2014

सच



तुमने प्यार में खुद को 
धरती बना डाला
पर
मैं
खुद को
बादल ना बना पाया
तुम समझी
मैं बरस कर
तुम्हारे मन को प्रेम रस में पगाना नहीं चाहता 
 पर
ये सच नहीं था
सच ये था
 मैं
तुम्हारे अंदर की आग को
बुझते नहीं देख सकता था।


तुमने प्यार में खुद को
नदी बना दिया
पर
मैं
समन्दर  ना बन सका
तुम समझी
मैं
प्रेम का प्रतिदान ना कर सका
पर
ये सच नहीं था
सच ये था
मैं
तुम्हारे वज़ूद को
खत्म होते नहीं देख सकता था।




Tuesday 8 April 2014

औरत

 औरत : एक   

शहर के पॉश इलाके में साईं बाबा का एक मंदिर है
कहते हैं सरकारी जमीन पर अतिक्रमण कर बनाया गया है
इसके निर्माण में न्याय से लेकर प्रशासन तक सभी ने 
यथा सम्भव योगदान किया है
अब ये हिट है। 

मंदिर में खूब भीड़ भाड़ होती है,
रोज़ भक्तों का बाबा से मिलन होता है,
बाहर भण्डारे चलते हैं,
अंदर चढ़ावे चढ़ते हैं,
और बेशकीमती कपड़ों से बाबा का श्रृंगार होता है। 

पर भक्तों की उस भीड़ में घूमती अधेड़ सी एक औरत है
बेखबर बेपरवाह इस सभी से,
भूख से बिलबिलाती,
झूठे पत्तलों को चाटती,
गर्मी में कुम्हलाती,
और सर्दी में किटकिटाती,
बिना किसी के आगे हाथ फैलाए,
बिना कुछ माँगे,
अनावृत यौनांगों को लिए हुए
वो संवेदनहीन सी।

वो निपट अकेली है क्योंकि वह 
बाज़ार के लिए घाटे का सौदा है
वर्ग संघर्ष के लिए भोथरा हथियार है
आस्तिकों के लिए कर्मों का फल है
नास्तिकों के लिए पाप का निशानी है 
समाज के लिए बोझ है 
शासन के लिए ज़िंदा लाश है 
तो क्या वो .... 
ना ना.…आप गलत सोच रहे हैं 
वो पागल कतई नहीं है 
मैं बताता हूँ 
दरअसल ये वो आईना 
जिसमें हमारा अक्स साफ़ साफ़ दिखाई देता है 
हम में बढ़ती जाती अजनबियत का 
दुगुनी होती संवेदनहीनता
पल पल मरते जाते ज़मीर का



औरत :दो 

शहर के दूसरे पॉश इलाके का ये मंदिर
सरकारी ज़मीन पर खड़ा 
हिस्ट्री शीटर पुजारी बना
गणेश जी ने दूध पिया
तो एक से दो बना
घूमती पगली सी इधर उधर एक नवयौवना का
इसी की छाया में आशियाना बना। 

कभी रेंगे थे आदमी इस शरीर पर
लिजलिजे कीड़ों की तरह
और छोड़ दिया था निर्जीव से शरीर को कबाड़ की तरह
आज वो आड़ कबाड़ को  खींचती है
फिर लाद लेती है अपने ऊपर उसे 
आदमी समझ कर
जैसे लादती आयीं हैं जन्म जन्मान्तर से। 
लेकिन अब एक अंतर आ गया है 
लादने के बाद 
वह उसे पीटती है,घसीटती है, फ़ेंक देती है 
और बार-बार यही प्रक्रिया दोहराती है,
मानो उन्हें दिखा रही हो उनका अक्स
कि तुम सिर्फ और सिर्फ़ कबाड हो
भले ही समाज और चिकित्सा विज्ञान उसे पागल कहे 
वह अब सभी बंधनों से आज़ाद है 
और वही करती है जो सही समझती है। 



औरत :तीन 

शहर के तीसरे पॉश इलाके का ये शानदार अपार्टमेंट
कब्जाई जमीन पर बना है
और  काली कमाई से खरीदे गए फ्लैट में
काम करती एक बाई है
जिसने अपने पेट की आग बुझाने के लिए
नशेड़ी पति की दारु के लिए
और बच्चों के दूध के लिए

बेच दिया
बच्चों के हिस्से का बेशकीमती समय
छोड़ दिया अपने हिस्से में आने वाला बच्चों का दुलार 

अब छूट गया 
बच्चों को बड़े होते देखने का सुख,
उनको दुलारने सहलाने की हूक,
उनको कुछ सिखाने की तमन्ना,
जवान होती बेटियों से राज़ बांटने की इच्छा,
खुद के सजने संवरने की चाह।  

खो गया  
मन का चैन,
और तन का सुख। 

टूट गए 
मन में सजाए सारे सपने,
और उन सपनों के सच होने की उम्मीद। 

अब वह शानदार मॉड्यूलर किचेन में खड़ी हो ढूंढती है
अपने हिस्से का सुख,
हटाती है उम्मीद के जूने से दुःख की झूठन,
जिंदगी के कमरों को झाड़ पोंछ कर
करती है जतन
किस्मत पर पडी धूल को हटाने का,
छींटती पछोटती है जिंदगी के कपड़ों को
और टाँग देती है क्लिप के सहारे रस्सी पर,
फिर देखती है आसमान की ओर इस आस में
कभी तो वो सुबह होगी
जिसकी धूप 
चुपके से सोख लेगी 
उसकी जिंदगी के अभावों के गीलेपन को
और उसकी जिंदगी में भी रह जाएंगे
निरे सुख। 





 



Saturday 5 April 2014

सड़क




सड़क जिंदगी के समानांतर चलती है
अपने इतने करीब लगती है
जीवन की कहानी बयाँ करती सी लगती है
क्या कभी आपने सड़क को ध्यान से देखा है ?

जी हाँ
सड़क
सुबह सुबह
शांत,निर्मल, पवित्र सी
दूर क्षितिज तक जाती
जिसका कोई अंत नहीं
छोटे से बच्चे की तरह मासूम सी दिखती
अनंत सम्भावनाओं को समेटे
खाली स्लेट सी साफ़ सुथरी
जिस में कुछ भी रच बस सकता है
और पूरा शहर उसके आगोश में समा सकता है। 

सड़क
दोपहर होते होते पूरे जोश से भर जाती है
पूरी क्षमता भर लोगो को ढ़ोती है
और भाग रही होती है
यहाँ से वहाँ
फुर्सत नहीं होती सांस लेने की भी
अपने में मगन
मग़रूर नौजवाँ सी सड़क।

सड़क
साँझ ढलते ही लगने लगती है
थकी-थकी सी
रफ़्तार पड़ने लगती है मद्विम
रौनक भी होने लगती है कम
लोग लगते है साथ छोड़ने।

और
रात बढ़ने के साथ ही
बुढ़ापे की तरह
एकाकी होने लगती है सड़क
एक-एक करके सभी छोड़ जाते हैं साथ
रह जाती है निपट अकेली वो
अन्धकार कुछ इस तरह से लेता है जकड़
कि पैरों के पास ही ख़त्म होती लगती है दुनिया 
उसके आगे सिर्फ रह जाता है अन्धेरा ही अँधेरा 
अकेले जीने को अभिशप्त
कभी कभार इक्के दुक्के भूले भटके आए राहगीर के साथ चलकर कुछ दूर
नई सुबह की इंतज़ार में
अकेले रात काटती सड़क।

कितनी अपनी कहानी सी लगती है सड़क। 







Wednesday 29 January 2014

सपने

1. 
सपने काँच की रंग बिरंगी चूड़ियों से नाज़ुक 
अभावों की हल्की सी ठसक से 
किरिच किरिच 
टुकड़ों टुकड़ों में 
बिखर बिखर जाते। 


2. 
सपने मन के आसमान में 
रंग बिरंगी पतंगों से
बिंदास बिंदास से 
ऊँचे ऊँचे उड़ते जाते 
ग़म के हलके से झोंके से 
फटे फटे से काग़ज की तरह 
ज़मीन पर पड़े पड़े 
नज़र आते।  


3. 
सपने  रंग बिरंगे गुब्बारो जैसे 
आशाओं की हवाओं से 
बड़े बड़े हो आसमान की ओर जाते 
रंज़ की हल्की सी नोक से 
बिंध बिंध कर 
ज़मीन पर बिखर बिखर जाते। 


4. 
सपने दुःख के बादलों से 
काले काले होते जाते 
उनके छंटते ही 
आशाओं की बूँदो के पार 
इंद्रधनुष बनाते।