Wednesday 25 September 2013

रिश्ता




जब भी गाँव जाता हूँ मैं

मिलना चाहता हूँ सबसे पहले

कृशकाय वृद्ध महिला से

जो रोज़ सुबह आती है दरवाज़े पे

ओढ़नी से काढ़े लंबा सा घूंघट

और लिए एक टोकरा सर पर और कभी कमर पर टिकाये  

खटखटाती है सांकल

ले जाती है दैनंदिन का कूड़ा

इसे गाँव कहता है चूढी(जमादारिन )

पर माँ मेरी कहती है 'बीवजी '

मैं बुलाता हूँ अम्मा

देखते ही मुझे जब  पूछती है वो

"कैसा है बेट्टा"

तो मन में बजने लगते हैं वीणा के तार

 कानों में घुल जाता है  शहद

दुनिया भर की माओं का प्यार उमड़ आता  है इस एक वाक्य में    

तब मेरी बेटी  पूछती है  मुझसे

किस रिश्ते से ये तुम्हारी अम्मा लगती हैं

तो मैं समझाता हूँ उसे

कि बहुत से रिश्ते गाँव की रवायतें बनाती हैं

जो अब मर रहीं हैं

और ये ऐसे रिश्ते हैं शब्दों  में बयां नहीं हो सकते

उन्हें सिर्फ और सिर्फ महसूसा जा सकता है।

स्त्री


वो हमेशा से दो सीमांतों पर ही रहती आयी  है  

इसीलिए हाशिये पर बनी हुई है 

वो या तो  "यत्र नार्यस्ते पुज्यन्तू....."वाली  देवी  है 

जौहर और सती होकर"देवत्व"को प्राप्त करती हैं  

या फिर दीन हीन होकर रहती है 

ढोल और पशु के समान 

ताड़ना की अधिकारी बनती है 

आखिर कब वो संतुलन के केंद्र में आएँगी 

केवल मनुष्य कहलाएंगी 

अपनी  समस्त

सम्वेदनाओ,

भावनाओं,

इच्छाओं,

राग विरागों,

कमियों और खूबियों से लैस 

हाड मांस का साक्षात्

साधारण मानव बन पाएगी। 


ख़तरा आ चुका है






ट्रेन के इंतज़ार में खड़ा स्टेशन पर

कि अचानक एक छोटा सा लड़का सामने आया

मांगने के लिए  हाथ बढ़ाया 

गरीबी को समझाया 

भूख की दुहाई दी 

माँ की बीमारी का वास्ता दिया 

और खूब ही गिडगिडाया 

पर मेरे आदर्शवाद ने उसकी सारी  दलीलों को ठुकराया 

मैं बोला पढ़ो लिखो और काम करो 

उसने पूछा आपके साथ चलूँ 

मैं सकपकाया और जल्दी से एक नोट उसके हाथ थमाया

नोट थामते ही उसकी आँखे बोल उठी 

 मेरी तरह अपने स्टैंड पर दृढ रहो 

और सफलता के लिए लगातार प्रयत्न करो

 सफलता मिलती है 



फिर वो  गया और जल्दी ही पास की स्टाल पर प्रकट हुआ 

 पेप्सी  और चिप्स का  पैकेट हाथ में लिए 

उसने कुछ घमंड और उपेक्षा भरी नज़रों से देखा 

मानो कह रहा हो उपभोग करना सिर्फ तुम्हारा अधिकार नहीं 

उपभोग को मैंने भी अच्छी तरह से सीख  पढ़ लिया है 



मैं सिहर उठा 

पानी सर से ऊपर जा चुका है 

शत्रु निकट से निकटतर आ चुका है 

बाज़ार का जादू उसके ही सर चढ़ कर बोल रहा है 

और दिल के रस्ते दिमाग को जकड चुका है 

जिसके लिए कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो रची गयी 

और बन्दूक की नली से क्रांति करी गयी। 

Sunday 15 September 2013

क्यों जाता हूँ गाँव



शहर में मची आपा-धापी से ऊब कर 

बार-बार लौट जाता हूँ गाँव  

खेत खलिहानों की हरियाली को निहारने

हल चलाने की कोशिश करने 

रहट चलाने

झोंटा बुग्गी हाँकने 

होल़े भुनकर खाने 

कोल्हू मे बनते ताज़े गुड को चखने

छप्पर पड़े घर में दुबकने

बड़े से घेर में उछल कूद मचाने

घी-दूध की नदियो में मचलने 

रागिनियाँ सुनने 

 सांग देखने 

चौपाल पर बैठने 

हुक्का गुडगुडाते बाबा से नसीहते सुनने 

अखाड़ो  में भाई बन्धुओ को जोर आजमाइश करते देखने 

बच्चों के साथ कंचे और गुल्ली डंडा खेलने 

कली पीती दादी माँ का दुलार पाने 

चरखा कातती ताई-चाची से आशीर्वाद  लेने  

साँझी को सजाने

बरकुल्लों को होलिका पर अर्पण करने

यारों से मिलने

बचपन की यादों के कोलाज़ सजाने

और भी ना  जाने क्या क्या करने ,देखने,सुनने और गुनने



लौट आता हूँ मैं गाँव बार-बार 

क्योंकि मैं भूल जाता हूँ 

कि अब हो रहा है भारत निर्माण 

और बदल रही है गाँव की तस्वीर

घरों की जगह ईंट सीमेंट से बने दड़बों ने ले ली है

 गाँव बन गया है पॉश कालोनियों से घिरा  टापू

जहाँ विकास की रोशनी पहुँचती है थोड़ी बहुत छनकर

 मैकाले की फ़िल्टरेशन थ्योरी की तरह

पर और बहुत सारी ग़ैर ज़रूरी चीजे पहुँच जाती आसानी से

बिना किसी रोकटोक के भरपूर

 पब्लिक स्कूल उग आये है कुकुरमुत्तों की तरह

जहाँ दुखहरन मास्टरजी नहीं ,पढ़ाती हैं टीचरजी

दारु के ठेके भी  देर रात तक रहते हैं गुलज़ार

कुछ शोह्देनुम लोग भी दिखाई पड़ने लगे हैं गाँव में

चौपालों पर तैरने लगे हैं राजनीतिक षड़यंत्र

गलियों में कुत्तों के साथ साथ घूमने लगे है माफिया

और इन्ही लोगों के साथ-साथ चुपके से बाज़ार ने कर ली है घुसपैठ




फिर भी लौट लौट जाता हूँ गाँव

जैसे बाबा हर बार अपने बेटे के पास से लौट आते थे गाँव

जीवन की सांध्य बेला में पिताजी को भी नहीं रोक सकी शहर की

कोई सीमा

वैसे ही

जड़ों से उखड़ने के बाद  शहर की भीड़ के बियावान में गुम

अपनी पहचान की तलाश में

अपनी जड़ो की और लौटता हूँ मैं भी

उन्हें सींचने और बनाने मजबूत

लौटता हूँ गाँव बार बार। 


(                                            

बेटी



मेरे आँगन में गौरय्या

फुदकती चहकती

करती तृप्त अपनी स्वर लहरियों से

चाह उसमें उड़ने की उन्मुक्त 

आकाश में

पंख फैलाकर उड़ती है अनंत गगन में



पर लौट आती है

लहुलुहान होकर

गिद्धों से भरा पड़ा  है पूरा आसमान

जिनकी (गिद्ध )दृष्टि क्षत विक्षत देती है उसकी आत्मा  को

तार तार कर देती हैं उसकी सारी उमंगें 

पस्त कर देती हैं उसके सारे हौंसले



वो लौटती है हाँफती  हाँफती

आ बैठती है मेरे कन्धे  पर

उदास उदास सी  

आँखों में प्रश्न लिए देखती है मेरी और

क्या होगा मेरा जब तुम नहीं रहोगे।

नेता (मुज़फ्फरनगर के दंगों के संदर्भ में )




सूअर है  

आदत जाती नहीं गंदगी फ़ैलाने की 

और जब गंदगी फ़ैल जाती है चारों ओर 

और सारा वातावरण भर जाता है सडांध  से 

तो गिरगिट की तरह रंग बदलकर 

बन जाता है कुत्ता 

और अपनी पूँछ से साफ करने कोशिश करता है उस गंदगी को 

जो उसने फैलाई थी 

हिलाता है दुम 

दिखाता है स्वामीभक्ति 

मानो वो ही है उनका रक्षक 

ताकि सौंप दी जाये उसे सत्ता 

साँप की तरह कुंडली मारकर करेगा उसकी रक्षा।